Muharram: Ek Pavitra Mahina – Story & Importance in Islam

मुहर्रम, ये इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है और इसका रुतबा कुछ खास है। ये सिर्फ धार्मिक नजरिए से ही नहीं, बल्कि इतिहास और संस्कृति के लिहाज से भी बहुत बड़ा महीना है। मुहर्रम का मतलब होता है "पवित्र" या "निषिद्ध", और ये उन चार पवित्र महीनों में से एक है, जिनमें इस्लाम में लड़ाई-झगड़ा करना मना है। इस महीने की 10वीं तारीख, यानी आशूरा, सबसे ज्यादा अहमियत रखती है। शिया और सुन्नी भाइयों के लिए ये दिन अलग-अलग वजहों से खास है। चलिये, इस ब्लॉग में हम मुहर्रम की पूरी कहानी, इसका महत्व, रीति-रिवाज और भारत में इसे कैसे मनाया जाता है, वो सब बोलचाल की भाषा में समझते हैं।
मुहर्रम का धार्मिक मोल
मुहर्रम वो महीना है, जो इस्लामिक साल की शुरुआत करता है। इसे पवित्र महीना माना जाता है, जिसमें रोजा रखना और दुआ मांगना बहुत पुण्य का काम है। हमारे नबी मुहम्मद (स.अ.व.) ने कहा था कि रमजान के बाद मुहर्रम का रोजा सबसे ज्यादा सवाब देता है। खासकर 9वीं और 10वीं तारीख को आशूरा का रोजा रखना सुन्नी भाइयों में बहुत मशहूर है।
सुन्नी लोग इस दिन को हजरत मूसा (अ.स.) की याद में मनाते हैं, जिन्हें अल्लाह ने फिरौन की गुलामी से आजाद करवाया था। कहते हैं कि मूसा (अ.स.) ने इस दिन अल्लाह का शुक्रिया अदा करने के लिए रोजा रखा था, और नबी (स.अ.व.) ने भी इस रिवाज को अपनाया। लेकिन शिया भाइयों के लिए आशूरा का दिन इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत की याद दिलाता है, जो इस्लाम की सबसे दर्दनाक और गमगीन घटना है।
इमाम हुसैन और कर्बला का वाकया
मुहर्रम की सबसे बड़ी बात है कर्बला का वाकया, जो 61 हिजरी (680 ईस्वी) में हुआ था। ये वो दुखद कहानी है, जिसमें नबी (स.अ.व.) के नवासे, इमाम हुसैन (अ.स.), उनके परिवार और कुछ वफादार साथियों ने सच और इंसाफ के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी।
बात ये थी कि उस वक्त यजीद नाम का एक शासक था, जो अपने गलत कामों और जुल्म के लिए बदनाम था। इमाम हुसैन (अ.स.) ने यजीद की हुकूमत को मानने से इंकार कर दिया, क्योंकि वो इस्लाम के सच्चे उसूलों के खिलाफ था। इमाम हुसैन अपने कुछ परिवार और दोस्तों के साथ कूफा जा रहे थे, लेकिन रास्ते में कर्बला के मैदान में यजीद की फौज ने उन्हें घेर लिया।
10 मुहर्रम, यानी आशूरा के दिन, यजीद की बड़ी फौज ने इमाम हुसैन और उनके छोटे से जत्थे पर हमला कर दिया। इमाम हुसैन के पास न पानी था, न ज्यादा लोग, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। वो और उनके साथी लड़ते रहे, लेकिन आखिर में इमाम हुसैन और उनके ज्यादातर साथी शहीद हो गए। इस जंग में उनके छोटे-छोटे बच्चे और परिवार के लोग भी शहीद हुए।
ये घटना इतनी दर्दनाक थी कि आज भी शिया भाई-बहन इसे बड़े गम के साथ याद करते हैं। कर्बला की कहानी सिखाती है कि सच और इंसाफ के लिए लड़ना कितना जरूरी है, चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न आएं।
मुहर्रम की परंपराएं
मुहर्रम में शिया और सुन्नी दोनों समुदाय अलग-अलग तरीकों से इस महीने को मनाते हैं।
शिया समुदाय
शिया भाई-बहन मुहर्रम को गम का महीना मानते हैं। पहले 10 दिन खास तौर पर इमाम हुसैन की शहादत को याद करने के लिए मातम और मजलिस का आयोजन करते हैं।
- मजलिस: ये वो सभाएं हैं, जहां लोग इकट्ठा होकर कर्बला की घटना की बात करते हैं, नौहा (दुख भरे गीत) पढ़ते हैं और इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद करते हैं।
- मातम: मातम में लोग सीना पीटते हैं या अपने आपको हल्का-सा चोट मारते हैं, ताकि इमाम हुसैन और उनके साथियों के दर्द को महसूस कर सकें।
- ताजिया और जुलूस: भारत में ताजिया बनाना और जुलूस निकालना बहुत आम है। ताजिया इमाम हुसैन की कब्र का प्रतीक होता है, जिसे लोग बड़ी शान से सजाते हैं और जुलूस में ले जाते हैं।
- रोजा और दुआ: कुछ लोग आशूरा के दिन रोजा रखते हैं और अल्लाह से दुआ मांगते हैं।
सुन्नी समुदाय
सुन्नी भाई-बहन आशूरा को हजरत मूसा की आजादी की खुशी में मनाते हैं। वो इस दिन रोजा रखते हैं और इबादत करते हैं। कुछ जगहों पर वो भी जुलूस में हिस्सा लेते हैं, लेकिन उनका फोकस ज्यादा गम की बजाय इबादत और शुक्राने पर होता है।
भारत में मुहर्रम
भारत में मुहर्रम को बहुत ही खास तरीके से मनाया जाता है। ये देश वो जगह है, जहां हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब मिलजुल कर रहते हैं, और मुहर्रम में भी ये भाईचारा दिखता है।
- ताजिया: भारत में ताजिया बनाना एक कला है। लोग बांस, कागज और रंग-बिरंगे कपड़ों से ताजिया बनाते हैं, जो इमाम हुसैन की कब्र का प्रतीक होता है। ये ताजिया इतने खूबसूरत होते हैं कि देखने वाले दंग रह जाते हैं।
- जुलूस: आशूरा के दिन बड़े-बड़े जुलूस निकलते हैं, जिसमें लोग ताजिया लेकर चलते हैं। नौहा और मातम के साथ ये जुलूस बहुत ही भावुक माहौल बनाते हैं।
- लंगर और खाना: मुहर्रम के दौरान कई जगहों पर लंगर या खाना बांटा जाता है। लोग शरबत, खिचड़ा या हलीम जैसी चीजें बांटते हैं, जो इमाम हुसैन की याद में होता है।
- मिलजुल कर हिस्सा लेना: भारत में खास बात ये है कि मुहर्रम के जुलूस में सिर्फ मुस्लिम ही नहीं, बल्कि हिंदू और दूसरे धर्मों के लोग भी हिस्सा लेते हैं। ये भारत की गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल है।
मुहर्रम का सबक
मुहर्रम सिर्फ एक धार्मिक महीना नहीं है, बल्कि ये हमें बहुत कुछ सिखाता भी है। इमाम हुसैन की शहादत हमें बताती है कि:
- सच के लिए लड़ो: चाहे कितनी भी मुश्किल हो, सच और इंसाफ के लिए खड़े होना चाहिए।
- कुर्बानी की भावना: इमाम हुसैन ने अपने परिवार और दोस्तों के साथ मिलकर जो कुर्बानी दी, वो हमें सिखाती है कि अपने उसूलों के लिए सब कुछ दांव पर लगाना पड़ सकता है।
- भाईचारा: भारत में मुहर्रम के जुलूस और आयोजन दिखाते हैं कि कैसे अलग-अलग धर्मों के लोग एक साथ आकर प्यार और इंसानियत का पैगाम फैलाते हैं।
आज के दौर में मुहर्रम
आजकल मुहर्रम का मोल और भी बढ़ गया है। दुनिया में जहां नफरत और बंटवारे की बातें बढ़ रही हैं, वहां इमाम हुसैन की कुर्बानी हमें एकजुट होने और इंसानियत के लिए काम करने की प्रेरणा देती है। सोशल मीडिया और इंटरनेट ने भी मुहर्रम को याद करने का तरीका बदल दिया है। लोग अब ऑनलाइन मजलिस में हिस्सा लेते हैं, नौहे शेयर करते हैं और कर्बला की कहानी को दुनिया भर में फैलाते हैं।
लेकिन साथ ही, ये भी जरूरी है कि हम मुहर्रम के असली पैगाम को समझें। ये सिर्फ मातम या जुलूस का महीना नहीं है, बल्कि ये हमें सिखाता है कि कैसे जुल्म के खिलाफ आवाज उठानी है और इंसानियत को बढ़ावा देना है।
मुहर्रम एक ऐसा महीना है, जो हमें इतिहास, धर्म और इंसानियत का एक बड़ा सबक देता है। चाहे आप शिया हों, सुन्नी हों या किसी और धर्म को मानते हों, मुहर्रम का पैगाम हर किसी के लिए है। ये हमें सिखाता है कि सच, इंसाफ और इंसानियत के लिए लड़ना कितना जरूरी है। भारत में मुहर्रम की रौनक, जुलूस और ताजिया इस देश की खूबसूरती को और बढ़ाते हैं।
तो इस मुहर्रम, चलो हम सब मिलकर इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद करें, उनके पैगाम को अपनाएं और एक बेहतर इंसान बनने की कोशिश करें।